बुधवार, 10 मार्च 2010

सार्वभौमिक (युनिवर्सल) भाषा or language globalisation

अमन, शांति सब चाहते हैं, फिर चाहे वो व्यक्ति हो, परिवार हो, संगठन हो, राष्ट्र हो या दुनिया। और सारी अशांति का कारण है विचारों में, व्यवहार में और सोच में विरोधाभास। आप सोच रहे होगें इसमें नई बात क्या है, ये तो सर्वमान्य है। तो ठीक है हम बात करतें हैं इसके आगे की जो नई है, पढ़्ने, विचारने और बहस के लायक है।

मान लीजिये "कोई एक"  भाषा को सारी दुनिया में सार्वभौमिक रूप से उपयोग किया जाये। सिखाया जाए, पढ़ाया जाए। स्कुलों में ३-४ भाषाओं की जगह सिर्फ़ एक भाषा हो। बच्चों पर बोझ कम हो जाये और उन्हें जो जरुरी है उसे पढ़ने समझने का ज्यादा वक्त मिले।

आज हमारे देश में हर १५०-२०० किमी में भाषा परिवर्तन होता है। देश में सैकड़ो बोली उपयोग में लाई जाती है। कैसा हो यदि उड़ीसा के एक छोटे से गाँव से लेकर अमेरिका, युरोप, चीन, जापान, अफ़्रीका और अरबी देशों में एक भाषा हो। आप सोच रहें होंगे कि कैसी पागलों जैसी बातें कर रहे हो। कुछ लोग यह भी कहेंगें कि यह तो संभव ही नहीं है। लेकिन नहीं, आने वाले १००-१५० सालों में यह होगा। धीरे-धीरे कम उपयोग वाली भाषा विलुप्त हो जायेगी और ज्यादा उपयोग वाली भाषा ज्यादा प्रचलन में आ जायेगी। इसे आप भाषा का ग्लोबलाईजेशन (वैश्वीकरण) भी कह सकते हैं।

इस बात को समझना है तो आप युँ समझे, पुराने समय में जयपुर में राजस्थानी भाषा का उपयोग होता था, जो अब चलकर हिन्दी ने जगह ले ली है। यही हाल सभी बड़े शहरों मे हो गया। बड़े शहरों में हिन्दी की जगह दुसरी सार्वभौमिक भाषा ले रही है। ऎसी ही स्थिति का जायज़ा आप गाँव में ले सकते हैं, पहले जहाँ स्थानीय बोली, टूटी-फूटी भाषा का उपयोग गाँव में होता था, वहीं अब गाँवों में भी "भाषा की मरम्मत" हो रही है। यह बदलाव शिक्षा और विकास के साथ चल रहा है। भाषा में बदलाव की प्रकिया सालों से चल रही है और आगे भी चलती रहेगी। लेकिन सार्वभौमिक भाषा आने में १००-१५० साल लग सकते हैं।

जैसे-जैसे समाज और देश विकसित होते जायेंगें देश में भाषा का विकास भी होता जायेगा। कुछ लोग भाषा के "सफ़र" को संस्कृति की अवनती का नाम भी देंगें। फिर भाषा के लिये, संस्कृति बचाने के लिये आंदोलन होंगें, दंगे-फसाद होंगें लेकिन बावजुद इसके यह सफ़र चलता जायेगा। कहीं धीरे तो कहीं तेज। कई लोग यह भी पुछते हैं कि सब अपनी-अपनी भाषा का उपयोग करें तो क्या बुराई है? अपनी-अपनी भाषा और संस्कृति दोनो जिन्दा रह जाएगें।

भाई साहब, संस्कृति को जीवित या मृत शब्दों से जोड़्ना ही मूर्खता है। संस्कृति जीवित या मृत नहीं होती है, ना ही इसे कोई बचा या बिगाड़ सकता है, ना कोई इसे हमेशा एक जैसा रख पाया है। भाषा भी संस्कृति का एक तत्व है। दुनिया में ऎसी कोई भाषा नहीं है जो एक व्यक्ति सारी उम्र उपयोग करता है। धीरे-धीरे वक्त के साथ, वातावरण में परिवर्तन के साथ, परिवार से दोस्तों और दोस्तों से व्यावहारिक परिदृश्य में कदम रखते ही उसकी भाषा बदलती जाती है।

साथ में यह भी ध्यान देना होगा कि भाषा के सफ़र में, भाषा की सरलता, स्पष्टता बहुत महत्वपूर्ण है। जैसे तुम, तु और आप की जगह सिर्फ़ कोई एक शब्द प्रयोग होता तो कितना अच्छा हो। कितना अच्छा हो की भाषा को सीखने में ३ साल की जगह १ महीना लगे। कितना अच्छा हो भाषा को सीखने में दिमाग को बहुत तनाव ना झेलना हो, और सबसे खास बात स्कुलों से भाषा का नाता छुटते ही राहत की सांस ना ली जाए।

भाषा के बदलाव की बातें दुसरे बदलाव से थोड़ी अलग है, यहाँ बदलाव साइक्लिक नहीं होते हैं। सार्वभौमिक भाषा के प्रचलन में आने के बाद वापस जनमानुष अपनी बोली पर आ जाये ऎसा संभव नहीं है। नहीं तो ये परिवर्तन साइक्लिक हो जाता।

एक बात और ध्यान में रखें कि कोई भी भाषा हमेशा एक जैसे रूप में सार्वभौमिक भाषा नहीं बनी रह सकती है। उस भाषा में भी नये-नये शब्द, नये-नये मायने आते रहते है और भाषा में बदलाव आता रहता है। इस तरह हमें दो तरह के बदलाव स्वीकारनें होंगें। स्वीकार शब्द को उपयोग इसलिये किया जाता है कि बदलाव तो आएगा, कहीं धीरे-धीरे तो कहीं तेज, उसे आप स्वीकार करें या आपकी आने वाली पीढ़ी अपनाए। और फिर जो परिवर्तन मानवता के हित में है तो उसे जड़त्वता के साथ विरोध करने के बजाए होते हुए बदलावों को खुशी के साथ स्वीकार करे।

"जितने ज्यादा वर्ग लोगों के, उतनी ज्यादा भाषा"। जैसे-जैसे आबादी बढ़्ती है तो समाज भी बढ़्ते जाते हैं, सोच में भी बदलाव आता है, और भाषाएं भी अलग-अलग हो जाती हैं। जैसे एक वर्ग जय श्री राम से बातचीत शुरु करता है तो एक वर्ग राम-राम सा, एक जय-महाराष्ट्र तो एक जय जिनेन्द्र। ऎसा नहीं है कि ये जान बुझकर समाज बांट रहें हैं लेकिन इनकी नासमझी में समाज बंट रहा है, इनकी संस्कृति को बचाने के मुद्दे ने इंसानों को, समाज को और ज्यादा बांट दिया है। सीमायें और बढ़ गई है, राज्य और राष्ट्र की अस्मिता भी खतरें में है, और खतरा भी क्या? बंटना तय है।

और ये खतरा किसी एक-दो आदमी को दबाकर नहीं रोका जा सकता। सारी मानवजाति की सोच में परिवर्तन आना होगा। और ये परिवर्तन शिक्षा के साथ तो आयेगा ही, आप और हम भी परिवर्तित होना शुरु करें तो बात बन जाएगी। बस शुरुआत चाहिये।

भाषा का उपयोग सिर्फ़ समझने-समझाने, सीखने-सीखाने के माध्यम के लिये होना चाहिये। ना कि उसे जीवित रखने के लिये। हम किसी भी भाषा के समर्थन और विरोध की बातें इसलिये ना करें कि यह

हमारी भाषा है और वह किसी और की। भाषा तो सिर्फ़ उन्नति के राह की पहली सीढ़ी है। अगर भाषा की लड़ाई में उलझ गये तो कभी सफलता से मेल नहीं कर पाओगे। बहुत ही पुराना तर्क है कि क्या

स्थानीय भाषा के लोगो नें तरक्की नहीं करी? मैं मना नहीं करता हुँ लेकिन जितनी उन्नति स्थानीय भाषा से गिने-चुने लोगो ने की है, उतनी उन्नति सार्वभौमिक भाषा से आमजन की हो सकती है।

संक्षिप्त में तात्पर्य यह है कि भाषा के लिये लड़ाई मत करो, कट्टर मत बनो, विरोध करने कि बजाये लचीले बनो।

6 टिप्‍पणियां:

  1. Dear Sachin,
    You are right that change is evident whether you accept it or not but it happens around you every moment. Secondly, culture has various definitions, the definition changes with people's individual perception level, atmosphere and vision. But it is also dynamic and evolves with time. I just say keep posting thoughts and inform us, so we can read.
    Dada

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  2. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें

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  3. bahut ucchh vichar hain, per ye vichar hamare desh ke sthaniy netaon tak agar pahunche to shayad desh ka bhala ho jayega.

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  4. अच्छा लेख,स्वागत है,बलोग जगत में ।

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